The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
उदात्तता और सुरुचि
उदात्तता : भावनाओं या क्रिया में किसी भी तुच्छता के लिए अक्षमता ।
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आभिजात्य : नीचता और तुच्छता के लिए असमर्थ । वह गरिमा और प्रभुत्व के साथ अपनी बात दृढ़ता से कहता है ।
गरिमा अपनी योग्यता का समर्थन करती है पर मांगती कुछ नहीं ।
भावनाओं की गरिमा : अपनी भावनाओं को आन्तरिक 'देव' का विरोध न करने देना ।
भौतिक में गरिमा : समस्त सौदेबाजी से ऊपर ।
चैत्य गरिमा ऐसी किसी भी चीज को अस्वीकार करती है जो घटिया बनाती या भ्रष्ट करती है ।
सुरुचि : धीरे-धीरे सत्ता से अपरिष्कृत का निष्कासन ।
भावुकता : सत्ता की सुरुचि के परिणामों में से एक ।
कोमलता : हमेशा दयामयी और सुख देने के लिए इच्छुक ।
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मनोहरता अक्षय मधुरता से घेर लेती और विजय पाती है ।
मधुरता शोर मचाये बिना जीवन में अपना मुस्कुराता स्पर्श जोड़ देती है ।
मधुरता स्वयं शक्तिशाली तब बनती है जब भगवान् की सेवा में लगी हो ।
मुस्कान कठिनाइयों पर वही क्रिया करती है जो सूर्य बादलों पर--वह उन्हें छिन्न-भिन्न कर देती है ।
मुझे नहीं लगता कि कोई जरूरत से ज्यादा मुस्कुरा सकता है । जो आदमी सभी परिस्थितियों में मुस्कुराना जानता है वह अन्तरात्मा की सच्ची समता के बहुत निकट है ।
२२ सितम्बर, १९३४
सामान्य रूप से कहें तो मनुष्य एक पशु है जो अपने-आपको अतिशय गम्भीरता के साथ लेता है । सभी परिस्थितियों में अपने ऊपर मुस्कुराना जानना, अपने दुःखों और मोह-भंगों महत्त्वाकांक्षाओं और पीड़ाओं, अपने तिरस्कार और विद्रोह पर मुस्कुरा सकना--यह स्वयं अपने ऊपर विजय पाने के लिए कितना सशक्त अस्त्र है ।
७ नवम्बर, १९४६
हमेशा सभी परिस्थितियों में मुस्कुराना सीखो, अपने दुःखों और सुखों
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पर, अपनी पीड़ाओं और अपनी आशाओं पर मुस्कुराना सीखो क्योंकि मुस्कान में आत्म-संयम की परम शक्ति है ।
अगर तुम जीवन पर सदा मुस्कुरा सको तो जीवन भी सदा तुम पर मुस्कुरायेगा ।
६ अक्तूबरू, १९६०
अगर कोई सदा मुस्कुरा सके तो वह सदा युवा रहता है ।
६ अक्तूबर, १९६०
शाश्वत स्मित : ऐसी दयालुता जो केवल भगवान् ही दे सकते हैं ।
हम प्राय: यह उपदेश सुनते हे .. ''अपने शत्रु से प्रेम करो ओर उसे
देखकर मुस्कुराओ ।'' एक ढोग या कृटनीतिभरी मुस्कान ले आना
शायद आसान हो सकता है लेकिन ऐसे लोग को सच्ची मुस्कान
देना असम्भव है जो बार-बार अपने व्यवहार में बेईमान रहे हों । हम
उन पर भरोसा नहीं कर सकते, उनसे किसी अच्छी बात की आशा
नहीं कर सकते, उनके प्रति एकदम उदासीनता और अवहेलना
स्वाभाविक हो जाती है । हम इससे कैसे पार पायें ?
तुम अपने शत्रु के आगे तभी अकृत्रिम रूप से मुस्कुरा सकते हो जब तुम समस्त अपमान और दुर्व्यवहार से ऊपर हो । यौगिक वृत्ति के लिए यह प्राथमिक शर्त है ।
शत्रु के आगे मुस्कुराना उसे निरस्त्र कर देना है ।
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