The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
विवाह और बच्चे
अपने शारीरिक जीवनों और अपनी भौतिक रुचियों को एक करना, कठिनाइयों और सफलताओं का, जीवन की हार और जीत का एक साथ मिलकर सामना कर सकने के लिए एक हो जाना--यही विवाह का आधार है--लेकिन तुम जानते ही हो कि यह पर्याप्त नहीं है ।
संवेदनों में एक होना, समान सुरुचियों और रंगरेलियों में रस लेना, एक ही चीज को एक-दूसरे के द्वारा और एक-दूसरे के लिए एक साथ अनुभव कर सकना, यह अच्छा है, जरूरी है--लेकिन यह पर्याप्त नहीं है ।
गहरी भावनाओं में, जीवन के सभी प्रहारों के बावजूद, एक-दूसरे के लिए पारस्परिक प्रेम और कोमल भावनाओं को बनाये रखना जो थकान, विक्षोभों और निराशाओं को सह सकते हैं, हमेशा और हर हालत में सुखी रहना, अत्यधिक सुखी रहना, हर परिस्थिति में, एक-दूसरे के सहवास में आराम, शान्ति और आनन्द पाना-यह सब अच्छा है, बहुत अच्छा है, अनिवार्य है-लेकिन यह पर्याप्त नहीं है ।
अपने मनों को एक करना, अपने विचारों को सामञ्जस्यपूर्ण और एक-दूसरे का पूरक बनाना, अपने बौद्धिक क्रिया-कलापों और खोजों को आपस में बांटना; संक्षेप में कहें तो दोनों के सम्मिलित विशाल और समृद्ध चिन्तन द्वारा मानसिक क्रिया-कलापों के क्षेत्रों को एक जैसा बनाना--यह अच्छा है, यह बिलकुल जरूरी है--लेकिन यह पर्याप्त नहीं है ।
इस सबके परे, तली में, केन्द्र में, सत्ता के शिखर पर, सत्ता का एक 'परम सत्य' है, ' शाश्वत प्रकाश' है जो जन्म, देश वातावरण और शिक्षा की सभी परिस्थितियों से स्वतन्त्र है; जो हमारे आध्यात्मिक विकास का स्रोत, कारण और प्रभु है--'वही' हमारे जीवन का सनातन दिग्दर्शक है । 'वही' हमारी नियति का निश्चय करता है; तुम्हें 'इसी की' चेतना में एक होना चाहिये । अभीप्सा और आरोहण में एक होना चाहिये, एक ही आध्यात्मिक पथ पर कदम मिलाकर आगे बढ़ना चाहिये-चिरस्थायी ऐक्य का यही रहस्य है ।
मार्च, १९३३
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यह चुनाव बिलकुल न था । मैंने केवल यह कहा था कि यह लड़की तीनों में सबसे अच्छी मालूम होती है, बस इतना ही । बहरहाल, विवाह अपने-आपको साधना के लिए तैयार करने का सीधा रास्ता नहीं है । यह परोक्ष मार्ग हो सकता है, अगर तुम्हारी बाह्य प्रकृति को सांसारिक आसक्तियों से छूटने के लिए कष्टों और निराशाओं की जरूरत है । लेकिन इस हालत में साधारणत: परीक्षण का अन्त दोनों में विच्छेद से होता है, कम-से-कम एक के लिए तो अक्सर कष्टकर विच्छेद है । इस विषय में मैं तुमसे इतना ही कह सकती हूं ।
१३ अक्तूबर, १९४०
''कृछ आधुनिक सामाजिक विचारकों के इस विचार के बारे में कि परिवार-प्रथा के टूटने और गायब हो जाने की आशंका और सम्भावना है, आपने टिप्पणी की है कि यह टूटना मानवजाति में उच्चतर और विशालतर उपलब्धि लाने के लिए एक अनिवार्य गति थी और हे ।'' इससे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं । स्पष्टीकरण के लिए उन्हें 'आपके' आगे रख रहा हूं ।
१- क्या आपका ख्याल हे कि परिवार-प्रथा का टूटना केवल उन थोड़े-से अपवादिक लोगों के लिए अनिवार्य है जो किसी उच्चतर मानसिक या आध्यात्मिक आदर्श का अनुसरण कर रहे हैं या सारी मानवजाति के लिए भी अनिवार्य हे ?
हां, केवल उन कुछ अपवादिक लोगों के लिए जो उच्चतर मानसिक या आध्यात्मिक आदर्श का अनुसरण करते हैं ।
२-अगर आप समस्त मानवजाति के परिवार-प्रथा के विलय के पक्ष में हैं तो क्या आपका ख्याल हे कि यह सीधे भोतिकीकरण द्वारा धरती पर जन्म की नयी प्रक्रिया के सामान्य बन जाने से पहले ही हो जाना चाहिये ?
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परिवार-प्रथा में अधिक स्वाधीनता और नमनीयता की जरूरत है । बंधे-बंधाये अटल नियम विकास के लिए हानिकर हैं ।
३ -क्या आप मानवजाति के उच्चतर विकास के परिवार-प्रथा की तरह विवाह-पद्धति का विलयन भी अनिवार्य हैं ? जब तक जन्म लेने की नयी क्रिया सामान्य न बन जाये तब तक क्या वर्तमान लैंगिकि प्रजनन जारी न रहेगा ? ऐसी अवस्था में क्या किसी- न-किसी प्रकार का वैवाहिक सम्बन्ध जरूरी न रहेगा ?
विवाह तो हमेशा होते रहेंगे लेकिन अवैधता से बचने के लिए कानूनी समारोह करने पर जोर न देना चाहिये ।
४-जब तक जन्म लेने का नया तरीका व्यापक न बन जाये और बच्चे वर्तमान लैंगिक पद्धति से पैदा होते रहें तब तक क्या पारिवारिक जीवन और वातावरण उनके पालन-पोषण के विशेषकर, गठन के आरम्भिक वर्षों में, सबसे अधिक उपयोगी नहीं है ? दूसरा विकल्प है कि उनकी देख-रेख अ?एर पालन-पोषण के लिये कोई व्यवस्था की जाये जैसे सरकारी शिशुशालाएं जिनकी कुछ कम्युनिस्ट विचारकों ने वकालत की थी । लेकिन इस मत को बहुत समर्थक नहीं मिले, क्योंकि यह देखा गया है कि बच्चों को जिस व्यवहार की जरूरत वह केवल पारिवारिक, घर-द्वार के मैत्रीपूर्ण वातावरण में मां-बाप से ही मिल सकता है । अगर यह सच है तो क्या कम-से-कम छोटे बच्चों की द्रष्टि से परिवार जरूरी न होने जब तक कि भावी नवीन प्रजनन- पद्धति सम्भव और सामान्य न हो जाये ?
यहां भी दोनों बातों को समान रूप से स्वीकार करना और व्यवहार में लाना होगा । ऐसे बहुत से हैं जहां बच्चे को परिवार से अलग करना उसके लिए आशीर्वाद होगा ।
कम-से-कम नियम ।
अधिक-से- अधिक स्वाधीनता ।
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सभी सम्भावनाओं को अभिव्यक्त होने के लिए पूरा अवसर मिलना चाहिये, तब मानवजाति तेजी से प्रगति करेगी ।
२१ जुलाई, १९६०
तुम कहते हो कि तुम अपने बच्चों का ठीक तरह से पालन-पोषण न कर सके , हालांकि तुम अच्छे पढ़े-लिखे सुसंस्कृत आदमी हो लेकिन उनके लिए तुम्हारे पास अतिरिक्त समय नहीं है, और तुम यह भी कहते हो कि तुम्हारी पत्नी के पास समय है लेकिन वह अनपढ़, असंस्कृत, और बेकार है । क्या तुम मुझे बताओगे कि उसकी अवस्था का जिम्मेदार कौन है ? पच्चीस वर्षों से अधिक वह तुम्हारे साथ रही है । इन पच्चीस वर्षों में तुमने उसे पढ़ाने या उसे अपनी ''सभ्यता'' देने के लिए क्या किया--बिलकुल कुछ नहीं । यहां तक कि यह विचार भी तुम्हारे अन्दर नहीं उठा । तुमने यह कभी नहीं सोचा कि अगर उसकी पढ़ाई के लिए तुम रोज एक घण्टा भी देते तो पच्चीस वर्षों में बहुत बड़ा अन्तर आ जाता । तुम्हारे लिए उसका अस्तित्व बस एक मशीन की तरह था जो तुम्हारी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखे और तुम्हारे बच्चे पैदा करे । तुम उसे विश्वासपात्र न बना सके, उसकी प्रगति के लिए तुम कुछ न कर सके, लेकिन यहां तुम अपने सारे दम्भ के साथ खड़े उस पर अपढ़ और असंस्कृत होने का सारा दोष मढ़ रहे हो ।
मैं उसकी सभी त्रुटियों का जिम्मेदार तुम्हें मानती हूं ।
तुम चाहते हो कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारे हुकुम के अनुसार चलें । तुम 'सत्य' के बारे में जानते ही क्या हो ? तुम अपनी इच्छा लादना चाहते हो क्योंकि तुम ज्यादा समर्थ हो । इसी तरह कोई अधिक समर्थ व्यक्ति तुम्हें पकड़ सकता है और तुम्हें उसके कहे अनुसार करना पड़ेगा ।
बच्चों को बड़ा करना बहुत कठिन काम है । मैंने ऐसे माता-पिता अधिक नहीं देखे जो उचित चीज कर सकें ।
तुम्हें बच्चों पर अपनी इच्छा लादने का अधिकार ही क्या है तुम ही
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उनकी समस्या पर गम्भीरता से विचार किये बिना या आवश्यक तेयारी के बिना ही उन्हें दुनिया में ले आये हो ।
अपने बच्चों को मत मारो ।
इससे तुम्हारी चेतना धुंधली हो जाती है और उनका चरित्र बिगड़ता है ।
१६ नवम्बर, १९६८
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